
प्रेम के दरीचे जब संस्कारों, सीमाओं और रिवाजों से बहुत दूर जाकर खुलते हैं, तब ये एक निमंत्रण बन जाता है निर्वाद के उन क्षणों में प्रवेश का, जहाँ दुनियावी पहचान और समाज के तमाम रिश्तों के लिबास त्याग दिए जाते हैं… और पूर्ण समर्पण और आत्म स्वीकृति के साथ आत्ममिलन संभव हो पाता है। यह कविता सिर्फ प्रेम या मिलन की बात नहीं करती, यह बात करती है अपने अहंकार, अपनी पहचान और अपने जिस्मानी लिबास को उतारकर रूह के स्तर पर एक हो जाने की। सुनिए और महसूस कीजिए प्रेम के इस सबसे पवित्र और निस्वार्थ रूप को।